राजकुमार साहू
समारू – महंगाई ह, आजकल कहां हे…
पहारू – सब के घर म त हावय ग…
समारू – नइ जोजवा, तोर-मोर घर म हावय, अउ हमन जैसे गरीब के घर म महंगाई ह जबरदस्ती घुसथे…
पहारू – कैसे, एसना कथस जोड़ीदार…
समारू – में ह, सित्तो कहत हं, महंगाई ह, हमन जैसे गरीब के घर म ही रथे…
पहारू – में ह, बने नइ समझत हं, समझा तो…
समारू – त सुन, ये महंगाई ह, बड़े आदमी मन के घर म जाय ल डराथे, महंगाई के आदत हे, ये ह गरीब मन के हे घर म रथे, महंगाई ल एसने करे ले मजा आथे…
पहारू – गरीब के घर म रहके, महंगाई ल का मजा आत होही… ये ल तय ह, बने समझा…
समारू – महंगाई ल, गरीब के घर म रहके, गरीब के छाती म मूंग दले ले मजा आथे…
पहारू – कैसे कथस, तय हं… महंगाई ह, छाती म कैसे मूंग दलहि…
समारू – अरे जोजवा, ये ह कहावत हे, तोला बने समझाय बर लागहि लागत हे…
पहारू – समझा तो…
समारू – त सुन, कान ल बने खोले रहिबे… महंगाई ह न गरीब के घर ही जाथे, ओकर हिम्मत नइ के, वो ह… अमीर आदमी के घर के दरवाजा छू लय. ये महंगाई ह, अमीर आदमी मन के घर ले बहुत दूर रथे…
पहारू – महंगाई ह, अमीर आदमी मन के घर ल अतेक काबर डराथे…
समारू – महंगाई ल ये पता हावय, गरीब के जेब ह खाली हे, त ओला अउ, खाली करे म महंगाई ह देरी नइ करय, अउ बड़े आदमी मन के जेब ह हमेशा भरे रथे त, ओला खाली करे म, महंगाई के पसीना छूट जाथे. एकरे बर, महंगाई ह बड़े आदमी मन के घर के तिर म फटके नइ सकय,
अउ महंगाई हर अपन स्थायी ठिकाना, गरीब मन के घर म बना के रखे हावय. एकरे बर, गरीब मन महंगाई ल अब डायन कहे लाग गे, काबर महंगाई ह, जतका गरीब ल सताते, ओतके महंगाई ल मजा आथे…
पहारू – तोर सब बात ल, अब में ह समझ गय हंव, अउ मोला पता भी चल गे, हमन कुछु कर ली, ये महंगाई ले पार नइ पा सकन, काबर हमन गरीब अन न… अउ गरीब के कोन सुनथे, त ये महंगाई ह सुनहि…
समारू – चल भाई पहारू, अब हमन का कर सकत हन, केवल अपन किस्मत ल दोष दे सकत हन, ये महंगाई ल लड़े बर तो अमीर आदमी होय बर लागहि न… जे हर हमर किस्मत म नइ हे, लागत हे.