डा. राजेंद्र प्रसाद के व्यक्तित्व में दार्शनिक बुद्धि और बालकोचित सरलता का अद्भुत समन्वय था। भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने राष्ट्रपति भवन की शानो-शौकत के बीच भी सादगी से जीवन बिताया।
भारत के राष्ट्रपति का पद देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद है। भारत गणराज्य की लगभग 72 वर्ष की यात्रा में अनेक महानुभावों ने इस गौरवशाली पद को सुशोभित किया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अग्रणी स्वाधीनता सेनानी और सादगी एवं विनम्रता की मूर्ति डा. राजेंद्र प्रसाद को भारत का प्रथम राष्ट्रपति चुना गया। 26 जनवरी, 1950 के दिन डा. राजेंद्र प्रसाद को भारत गणतंत्र का प्रथम राष्ट्रपति चुना गया। वे गांधी जी के सच्चे अनुयायी थे। वे स्वाधीनता संग्राम की ज्वाला से तपकर निकले थे। डा. राजेंद्र प्रसाद डायरी लिखा करते थे। सर्वोच्च संवैधानिक पद पर चुने जाने के दिन उन्होंने डायरी में अपने मनोभावों को लिखा है। उनकी वह डायरी अब हमारे इतिहास का हिस्सा है। 26 जनवरी, 1950 की डायरी के पृष्ठों से उनका विराट व्यक्तित्व अनायास ही हमारे समक्ष उद्घाटित हो जाता है। उस दिन की डायरी में अन्य घटनाओं के साथ-साथ राष्ट्रपति के रूप में पद की शपथ लेने के बाद उन्होंने अपनी डायरी में लिखा- ‘आज यह क्या का क्या हुआ। मैं भारत का राष्ट्रपति हो गया और भारत स्वतंत्र सर्वशक्ति संपन्न प्रजातंत्रात्मक गणराज्य हो गया’। तभी उनकी कलम रुकी। कुछ ऐसा लिख गया था, जो उनके विचार और आचरण से मेल नहीं खाता था। उन्होंने उस ऐतिहासिक दिवस की नितांत निजी डायरी में भी काट-छांट करने में देर नहीं लगाई। ‘मैं भारत का राष्ट्रपति हो गया और’ को काट दिया और फिर लिखा- ‘आज यह क्या का क्या हुआ। भारत स्वतंत्र सर्वशक्ति-संपन्न प्रजातंत्रात्मक गणराज्य हो गया और मैं उसका पहला राष्ट्रपति!’ पहले राष्ट्र, फिर राष्ट्रपति।
डा. राजेंद्र प्रसाद कुल 12 वर्ष, तीन महीने और 17 दिन तक भारत के राष्ट्रपति रहे। राष्ट्रपति भवन में भी राजेंद्र बाबू ने सादगी से जीवन बिताया। इस विशाल भवन में छोटे-बड़े 300 से अधिक कमरे हैं किंतु राजेंद्र बाबू ने अपने इस्तेमाल में कुल 5-6 कमरे ही रखे थे। उनका दैनिक जीवन वैसा ही रहा, जैसा स्वतंत्रता संग्राम के समय आश्रमों में रहता था। वे राजा जनक की परंपरा में उस विशाल भवन में विदेह की भांति रहे। एक बार उनसे पूछा गया, ‘आप राष्ट्रपति भवन के राजसी ठाठ-बाट में छपरा के निरीह किसान जैसा व्यवहार किस प्रकार कर पाते हैं?’ उनका सीधा-सा उत्तर था, ‘मैं यह कैसे भूल सकता हूं कि मेरा सत्य रूप क्या है! मैं तो धरती का बेटा हूं।’
राजेंद्र बाबू के व्यक्तित्व में दार्शनिक की-सी तीक्ष्ण बुद्धि और बालक की-सी नितांत सरलता का अद्भुत समन्वय था। राष्ट्रपति भवन में जिस शालीनता से वे देश-विदेश के महामहिम अतिथियों का स्वागत करते थे, उतनी ही ममता, स्नेह और वात्सल्य से वे दूरस्थ ग्रामों के निवासी नागरिकों से भी मिलते थे। भव्य राष्ट्रपति भवन के कमरे में सिर्फ गंजी पहने और कांधे पर गमछा रखे राजेंद्र बाबू ‘तेहि पुर रहत भरत बिनु रागा’ के रूप में त्याग और अनासक्ति की साक्षात मूर्ति थे।
सभी धर्मों और पंथों के प्रति उनके हृदय में सम्मान था। वे सच्चे अर्थों में पंथ-निरपेक्ष थे, लेकिन सनातन धर्म में उनकी अगाध श्रद्धा थी। वे कहते थे कि हमारा देश धर्मनिरपेक्ष राज्य है। इसका अर्थ यह नहीं कि यह अनिवार्यत: नास्तिक राज्य या सदाचारविहीन राज्य है। राष्ट्रपति भवन में भी उन्होंने एक स्थान पर पूजा-मंडप बनवाया था। वहीं प्रतिदिन संध्या-वंदना, पूजा-अर्चना करते थे। समय-समय पर पंडित भी उसी स्थान पर जप-पाठ करते थे। राष्ट्रपति भवन को भारतीय स्वरूप देने के लिए भी वे सचेत थे। एक बार श्री हरेकृष्ण महताब ने उन्हें पत्र लिखकर कहा कि राष्ट्रपति भवन में भारत के महापुरुषों के चित्र होने चाहिए। 23 अक्टूबर, 1952 को राजेंद्र बाबू ने तत्परता से जवाब दिया और बताया कि ‘कई चित्रों के लिए आर्डर दे दिए गए हैं और कई आ भी गए हैं। अब आप जब यहां आएंगे तो कुछ को यहां की दीवारों पर पाएंगे।’
राष्ट्रपति भवन में रहते हुए भी वे पटना के सदाकत आश्रम को भूले नहीं थे। वे आश्रम की सुध लेते रहते थे। नैनीताल के राजभवन से 30 मई, 1959 को उन्होंने आश्रम के प्रबंधक श्री नथुनी बाबू को पत्र लिखकर पूछा। ‘इस साल आम पकने के समय मैं दिल्ली में ही रहूंगा। मेरे पास आम भिजवाइएगा। मुझे पता लगा है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में जहां-जहां ईंट की चिमनी जलती है, धुएं की वजह से आम में एक बीमारी हो जाती है। आम की डंडी के नजदीक काला रंग हो जाता है और डंडी सूख जाती है और आम गिर जाता है। दोनों प्रांतों में लोगों ने इस बीमारी का नाम ही चिमनी रख दिया है। सदाकत आश्रम के नजदीक भी तो चिमनियां जलती हैं। पता नहीं वहां भी यह बीमारी है या नहीं। अगर आपका ध्यान इस ओर नहीं गया हो तो ध्यान से देखेंगे और मुझे सूचित करेंगे।’
दूसरे कार्यकाल को पूरा करने के बाद 13 मई, 1962 को वे राष्ट्रपति पद छोड़ने वाले थे। इस अवसर पर 10 मई, 1962 को दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल विदाई समारोह आयोजित किया गया। सभा मंच पर राष्ट्रपति जी के साथ उपराष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन, डा. जाकिर हुसैन, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ तथा सेठ गोविंद दास आदि उपस्थित थे। हजारों लोग इस सभा में मौजूद थे। रामलीला मैदान में उनके आगमन पर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उनका स्वागत किया था। पद और सुविधाओं से राजेंद्र बाबू की अनासक्ति का एक और प्रमाण उनके उस विदाई समारोह में प्राप्त हुआ। आभार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि- ‘मैं इस पद से मुक्त होते हुए ऐसा अनुभव कर रहा हूं जैसे पाठशाला से छुट्टी मिलने पर बालक को प्रसन्नता होती है।’
राष्ट्रपति भवन में अपने सार्वजनिक जीवन की पाठशाला की अंतिम कक्षा को उत्तीर्ण करके उनके जैसा स्थितिप्रज्ञ व्यक्ति ही सदाकत आश्रम के साधारण आवास में रहने जा सकता है। दुर्भाग्य से वे अधिक दिन तक जीवित न रहे। 28 फरवरी, 1963 को उन्होंने हमेशा के लिए आंखें मूंद लीं। उनका जीवन, उनके आदर्श आज भी हमारे पथ-प्रदर्शक बने हुए हैं।