22 की उम्र तक एक भी फ़िल्म न देखने वाला डायरेक्टर, आज वर्ल्ड सिनेमा का ध्रुव तारा है

रशियन फ़िल्म डायरेक्टर आन्द्रेई तारकोवस्की कहते हैं:



ऐसे किसी सिनेमाई काम को इमैजिन नहीं किया जा सकता, जिसमें शॉट के भीतर समय के बहने का भाव न हो.

कहते हैं समय को बांधना इम्पॉसिबल है. लेकिन सिनेमा समय को बाँध देता है. एक डायरेक्टर और स्क्रीन राइटर फिल्म के ज़रिए अपने वक़्त को दर्ज करता है. और इसके लिए उसकी ट्रेनिंग शुरू होती है फ़िल्म देखने से.

सोचिए एक ऐसा लड़का भी हुआ है, जिसने 22 की उम्र तक किसी तरह का सिनेमा नहीं देखा और आज वर्ल्ड सिनेमा का चमकता सितारा है. शॉक लगा ना. कोई नहीं

आइए एक कहानी सुनाते हैं.

ईरान  की राजधानी तेहरान में दो लोग मिले. शादी की. 6 दिन बाद अलग हो गये. उनकी शादी से 29 मई 1957 को एक बच्चा जन्म लेता है. मां उसे छोड़ देती है. कट्टर धार्मिक विचारों वाली ग्रैंडमा उसे पालती है. उसे बताया जाता है कि संगीत और सिनेमा जहन्नुम की दो सीढियां हैं. वो मान भी लेता है.
समय गुज़रता है. अब उसकी उम्र 15 हो चुकी है. ईरान में तानाशाही है. तत्कालीन शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने के लिए वो एक संगठन में शामिल हो जाता है.

17 की उम्र में पुलिस वाले पर हमला. फिर जेल और थर्ड डिग्री टॉर्चर. ऐसी यातना जिसमें पैर की हड्डी तक बाहर आ गयी. इन सबके बीच उसने पढ़ना शुरू किया. नॉवेल लिखा. फिर ईरानी क्रांति के समय, तक़रीबन साढ़े चार साल बाद उसे जेल से रिहा कर दिया गया. अब वो 22 का हो चुका था.

रूढ़िवाद इस देश की नसों में रचा-बसा है. वो इसे बदलने की ठानता है. इसके लिए उसको सबसे मुफ़ीद और सशक्त हथियार दिखाई देता है, सिनेमा.
जेल से बाहर आकर वो फ़िल्में लिखना शुरू करता है. उसे लगता है जब वो फ़िल्म लिख सकता है, तो बना क्यों नहीं सकता! कैमरा उसके लिए कलम बन गया. लुमियर ब्रदर्स की तरह बिना किसी ट्रेनिंग के बनती हैं धड़ाधड़ तीन मूवीज. बिल्कुल नौसिखिया. एकदम रॉ.

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अब वो ठहरता है. जैसे शेर शिकार से पहले कुछ कदम पीछे जाता है. तैयारी करता है. क़िताबें चाट जाता है. उसने 400 किताबों में से सिनेमा के 200 रूल्स बनाये. जिन्हें वो अल्फाबेट्स ऑफ सिनेमा कहता है. क्योंकि अल्फाबेट्स को रीअरेंज करके वो हर बार कोई नया शब्द क्रिएट कर सकता है. अपने सिनेमाई अल्फाबेट्स से वो एक के बाद एक बेहतरीन फ़िल्में बनाता है और दुनिया कहती है सिनेमाई जीनियस आ गया. उस जीनियस का नाम है मोहसिन मखमलबाफ.
मोहसिन अपने फिल्मी करियर को चार हिस्सों में बांटते हैं.

#पहला हिस्सा: एन्टी एस्टेब्लिशमेंट फ़िल्में

पहला हिस्सा 1982 से 1985 के बीच का. जो एन्टी एस्टेब्लिशमेंट फिल्मों का दौर है. इसमें शाह के खिलाफ हुए आंदोलन को लेकर फिल्में बनीं. ‘बायकॉट’ तो उनके निजी अनुभवों की फ़िल्म है. जिसका नायक पुलिस वाले पर हमला करता है और उसे मौत की सज़ा सुनाई जाती है.

#दूसरा हिस्सा: सामाजिक फिल्ममेकर

दूसरा हिस्सा 1987 से 1989 के बीच. जिसमें मोहसिन ने ‘द सायकलिस्ट’ जैसी शानदार फ़िल्म बनाई. जिसका नायक एक अफगान शरणार्थी है. जो कई दिनों तक साइकिल चलाता है. ताकि पत्नी के इलाज के लिए पैसे जुटा सके. इस फेज़ में हम मखमलबाफ को राजनैतिक फिल्ममेकर से सामाजिक फिल्ममेकर में तब्दील होते देखते हैं.
पहले दोनों हिस्से अच्छे इंसान और बुरे आदमी के फ़र्क को चिन्हित करते हैं. फर्स्ट फेज़ में आंदोलनकारी अच्छे हैं और दूसरे में ग़रीब.

#तीसरा हिस्सा: मानव मन में तांकझांक

तीसरे हिस्से में मखलबाफ ज़िंदगी और मानव के बीच हो रही जद्दोजहद को समझने की कोशिश करते हैं. ह्यूमन नेचर के अंतर्द्वंदों को फिल्माने और सॉल्व करने का प्रयास करते हैं. उनका कैमरा मानव मन में झांकने की कोशिश करता है. बेसिकली 1991 से 1996 के बीच की उनकी फिल्मोग्राफी सामाजिक या राजनीतिक न होकर, ह्यूमन सेंट्रिक ज़्यादा है. इंसानी स्वभाव और जज़्बात की खोजबीन.

उनकी फिल्म ‘गाब्बेह’ यानी एक प्रकार की पर्शियन कार्पेट, एक लड़की की कहानी है. उसे अपने प्रेमी से शादी करनी है. लेकिन वो ट्रेडिशन के फेर में फंसी है. जब तक बड़े शादी नहीं कर लेते वो नहीं कर सकती. उसके 57 साल के अंकल अब भी सिंगल हैं. परम्परा, प्रतिष्ठा और अनुशासन के विरुद्ध खड़ी यह फ़िल्म मानवीय मूल्यों की पड़ताल करती है. जिसे सबवर्सिव बताकर ईरान में बैन कर दिया गया.

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अब बात करते हैं चौथे और आख़िरी हिस्से की, जिसे अभी मोहसिन जी रहे हैं. उनका व्यक्तिगत विकास सीधे तौर पर उनके सिनेमाई विकास से जुड़ता है. जैसे-जैसे मोहसिन इंसानी तौर पर सजग और संवेदनशील होते गए, उनका सिनेमा भी सजग और संवेदनशील होता गया. ये फिल्ममेकर के तौर पर उनका मैच्योरिटी पीरियड है. इस दौर में उन्होंने पोएटिक ब्रिलियन्स और अनूठे विज़न का सिनेमा दिया.

इसी दौर की एक फ़िल्म ‘अ मोमेंट ऑफ इनोसेंस’  जिसे मोहसिन और उस पुलिस वाले पर फिल्माया गया है, जिस पर हमले के लिए मखमलबाफ जेल गए थे. इसे सेमी बायोग्राफ़िकल फ़िल्म कहा जा सकता है.

#चौथा हिस्सा: पोएटिक ब्रिलियन्स

मेरी हर फिल्म अपने आप में एक अलग शैली है. मैं दोहराव से बचता हूँ.

उनकी डॉक्यूमेंट्री ‘द गार्डनर’  को भी खूब सराहना मिली. इसे उनकी पोएटिक ट्रायलॉजी की तीसरी फ़िल्म माना जाता है. ‘द साइलेंस’ और ‘गाब्बेह’  इस ट्रायलॉजी की दो और फिल्में हैं. धार्मिक मान्यताओं पर सवालिया निशान लगाने वाली ये तीनों मूवीज़ ईरान में बैन हैं. उनका हालिया काम ‘द प्रेसिडेंट’ अरब स्प्रिंग (Arab Spring) से इंस्पायर माना जाता है. इसने भी पूरी दुनिया में ख़ूब वाहवाही बटोरी.

#अपुन का कोई स्टाइल ही नहीं है, यही अपुन का स्टाइल है

मोहसिन कहते हैं. मेरी कोई फ़िल्ममेकिंग शैली नहीं है.
2001 में एक फ़िल्म बनाई ‘कांधार’. इस फ़िल्म से मखमलबाफ विश्व सिनेमा में छा गये. यह नफ़स की कहानी है थोड़ी रियल, थोड़ी रील. जो अफगानिस्तान में छूट गयी अपनी बहन को ढूंढने आती है. फ़िल्म के अफगानिस्तान वाले हिस्से को छिपकर शूट किया गया. टाइम ने इसे सर्वकालिक बेस्ट फिल्मों की टॉप 100 सूची में जगह दी.

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मोहसिन ने अपने 200 सिनेमा अल्फाबेट्स बनाए हैं. उसी के अदल-बदल से वो हर बार कुछ नया रचते हैं. उनके जीवन के अनुभव भी उन्हें दूसरों से अलग बनाते हैं. मोहसिन कहते हैं,

आपके पास सिनेमा से इतर भी कुछ होना चाहिए. जब तक आपके पास कुछ प्लस नहीं है, कैमरा सिर्फ़ एक खिलौना है. सिनेमा और जीवन के अनुभव आपको स्पेसिफिक बनाते हैं.

मखमलबाफ के पास सिनेमा से हटकर बहुत कुछ है. जो उन्हें ख़ास बनाता है.
शिप ऑफ थीसियस के डायरेक्टर आनन्द गांधी उनके बारे में कहते हैं:

मखमलबाफ की फिल्मों को देखकर जैसे कॉन्शसनेस का एक पुर्ज़ा खुल गया.

उनकी फिल्ममेकिंग शैली डॉक्यूमेंट्री के बहुत क़रीब है. एक फ़िक्शन फ़िल्म को भी मोहसिन डॉक्यूमेंट्री की तरह ट्रीट करते हैं. इसकी प्रत्यक्ष प्रमाण हैं उनकी फिल्में- ‘अ मोमेंट ऑफ इनोसेंस’ और ‘गाब्बेह’. सोशल जस्टिस और सोशल रिस्पांसिबिलिटी उनकी फ़िल्ममेकिंग के दो अहम पहलू हैं. उनका मानना है,

सिर्फ़ अमेरिका ने ही हमारे देशों पर आक्रमण नहीं किया बल्कि हॉलीवुड ने भी हम पर आक्रमण किया. अवसाद और अकेलेपन के सिवा हॉलीवुड ने हमें क्या दिया?

ईरानियन सिनेमा आध्यात्म, शान्ति और उम्मीद का सिनेमा है.
दुःख की निश्चितता को ख़त्म करके उम्मीद के सुख और सुंदरता की ओर लौटने का नाम है मोहसिन मखमलबाफ.

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