Thank God Review: इस फिल्म से आप समझ सकते हैं बॉलीवुड का लेवल, आपके लिए हैं कुछ सबक. जानिए..

दो घंटे तक चलने वाली राइटर-डायरेक्टर की यह ऐसी कॉमेडी है, जिसमें टीवी के एक रीयलिटी शो से गेम का आइडिया लेकर उसमें वाट्सएप युनिवर्सिटी के कोर्स में घिस चुके चुटकले भर दिए गए हैं.



 

 

 

जैसेः ‘शोभा सिर्फ लड़कों को गाली क्यों देती है… क्योंकि लड़कियों को गाली शोभा नहीं देती!’ ऐसी बेसिर-पैर की बातें यहां आप खूब देख सकते हैं. कच्ची कहानी और सस्ते डायलॉग दिमाग में बम की तरह फूट कर जेब में छेद करते हैं. फिल्म असल जिंदगी की कोई बात नहीं करती और फेंटेसी दिखाते हुए सिर्फ आपको सबक सिखाती रहती है. क्रोध मत करो. दूसरों से ईर्ष्या मत करो. भ्रम में मत जीओ, अपनी असलीयत पहचानो. पराई स्त्री को मां-बहन मानो. ऐसा नहीं किया तो मरने पर नर्क मिलेगा. इंद्र कुमार 1980 से बाहर नहीं निकल पाए हैं. जबकि दर्शक 2022 में जी रहा है.

 

 

जिंदगी के सबक
फिल्म की कहानी में राइटर इस आइडिये को लेकर चले हैं कि एक लालची-स्वार्थी 33 साल के जवान अयान कपूर (सिद्धार्थ मल्होत्रा) की कार का एक्सीडेंट हो गया. इधर उसका घायल शरीर अस्पताल में है. उधर, उसकी आत्मा ऊपर पहुंच चुकी है. जहां मनुष्य के कर्मों का हिसाब-किताब रखने वाले सीजी उर्फ चित्रगुप्त (अजय देवगन) उसके साथ एक गेम खेलते हैं. गेम ऑफ लाइफ. गेम में अयान के धरती पर किए पाप-पुण्य पर बात होती है. गेम की शर्त यह कि अगर उसके पुण्य ज्यादा हुए, तो वह नया जीवन पा जाएगा. पाप ज्यादा हुए तो मरकर नर्क में जाएगा. गेम का रूल यह कि जब-जब उसके पाप साबित होंगे तो एक तरफ रखे खाली खंभे जैसे पाइप में ऑडियंस काली गेंद डालेंगे. जब पुण्य साबित होंगे तो दूसरी तरफ रखे खाली खंभे जैसे पाइप में ऑडियंस सफेद गेंद डालेंगे. स्वाभाविक है कि अयान के पाप का घड़ा जल्दी-जल्दी भरता है मगर जब कहानी में ट्विस्ट आता है और फिर अचानक पुण्य की गति बढ़ जाती है. इस बीच निर्देशक ने अयान को तमाम कमजोरियों से ग्रस्त इंसान बताते हुए दिखाया है कि उसकी पत्नी-बेटी, मां-बहन और जीजा भी हैं. इनके साथ उसके कनेक्शन की कहानियां हैं. अब क्या होगा. क्या अयान जिंदा धरती पर लौटेगाॽ उसे इस गेम में कौन-कौन से सबक मिलेंगेॽ

 

 

 

कॉमेडी से इमोशन तक
थैंक गॉड की न तो कहानी नई-नई बातों के साथ बांधती है और न ही अजय देवगन अपने सीजी वाले रोल में जमे हैं. वह पूरे समय सिर्फ एक हॉल में चहल-कदमी करते रहे हैं. सिद्धार्थ मल्होत्रा एक्टिंग करने की कोशिश करते हैं, लेकिन उन्हें अभी लंबा सफर तय करना होगा. रकुल प्रीत सिंह के साथ उनकी जोड़ी नहीं जमती. इंद्र कुमार जैसे सीनियर निर्देशक ने कुछ दृश्यों को बहुत ही कमजोर ढंग से शूट किया है. खास तौर पर सिद्धार्थ के सिंघम बनने और उसकी पत्नी के अपराधी से निपटने के सीन को. मूल आइडिये के बाद कहानी में सिर्फ गेम का दोहराव बचा रहता है. यह उबाता है. कहानी का ट्विस्ट इसे फैमेली ड्रामा बनाने की कोशिश करता है और सारी कॉमेडी यहां क्रेश हो जाती है. वह इमोशनल ट्रेक पकड़ लेती है. लेखक-निर्देशक को लगता है कि वह भगवान हैं और दर्शकों को ढेर सारा ज्ञान देने के लिए ही उन्हें ऊपर वाले ने धरती पर भेजा है.

 

 

 

 

बात बॉलीवुड के लेवल की
फिल्म के दोनों में से किसी भी हिस्से में आपको महसूस होता कि बात बन रही है. शुरुआती आधे घंटे में पूरा मामला समझ आने के बाद आप सिर्फ यह इंतजार करते हैं कि थैंक गॉड कब खत्म होगी. फिल्म का गीत-संगीत बेहद औसत है. नोरा फतेही पर फिल्माया गया गाना कुछ ठीक है, लेकिन उसे यूट्यूब पर देखा जा सकता है. यह बेहद कमजोर बॉलीवुड फिल्म है, जो दिवाली के अलावा आम दिनों में भी एंटरटेन नहीं करेगी. एक तरफ कुछ जगहों पर जहां वाट्सएप युनिवर्सिटी का एहसास होता है, तो बीच-बीच में ऐसा लगता है कि कोई सेल्फ हेल्प बुक आपके जीवन को गाइड करने की कोशिश कर रही है. पूरी फिल्म में जिंदगी का एहसास गायब है. लेकिन मृत्यु और नैतिकता पर भी कोई ठोस फिलॉसफी नजर नहीं आती. असल में बॉलीवुड के लोगों को लगता है कि हिंदी के दर्शकों का बौद्धिक लेवल बहुत नीचे है. मगर यह बात नहीं है. सोचना फिल्म मेकर्स है. उन्हें अपना लेवल थोड़ा बहुत नहीं, काफी ऊंचा उठाने की जरूरत है. एक्टरों को भी अपने अंदर झांकना चाहिए कि वह क्या काम कर रहे हैं. क्या वह सचमुच किसी फिल्म में काम कर रहे हैं, जिसका आम आदमी से कोई कनेक्शन है या फिर वे प्रोड्यूसर से सिर्फ दर्शकों के बीच अपने जाने-पहचाने चेहरे की फीस वसूल रहे हैं.

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