Jhund Review: बॉलीवुड के रुटीन सिनेमा से अलग है यह फिल्म, अमिताभ समेत सभी कलाकारों की परफॉरमेंस है शानदार

यह बॉलीवुड के झुंड का सिनेमा नहीं है. यह झुंड से अलग है. यह ऐसा सिनेमा है, जो आंखों के आगे सच की तरह गुजरता है. इसके दृश्य, इसके किरदार, इसके संवाद. इसकी कहानी भी असली है. लेखक-निर्देशक नागराज मंजुले की यह फिल्म नागपुर की झोपड़ पट्टियों में रहने वाले बच्चों का जीवन संवारने वाले शिक्षक विजय बरसे की सच्ची कहानी पर आधारित है. विजय ने अभावग्रस्त जीवन जी रहे बच्चों को फुटबॉल की ट्रेनिंग दी और उसके बहाने कइयों को छुट-पुट अपराध की दुनिया से बाहर निकाला. उनकी जिंदगी पटरी पर लाए. झुंड असल में समाज में खड़ी उन दीवारों की बात करती है, जिन्हें तमाम गरीब-अशिक्षित लोग प्रतिभाशाली होने के बावजूद छलांग नहीं पाते. इस तरह झुंड बड़ा संदेश देती है. फिल्म के आखिरी मिनटों में अमिताभ बच्चन का कोर्ट में लंबा मोनोलॉग समाज में गैर-बराबरी की हकीकत को खूबसूरती से बयान करता है. इसमें संदेह नहीं कि पूरी जिम्मेदारी से बनी फिल्म का लक्ष्य ऊंचा है और यह वर्तमान की जमीन पर खड़े होकर भविष्य के आसमान में उड़ान भरती है.



नागराज मंजुले की यह पहली हिंदी फिल्म है, लेकिन मराठी में उनकी दो फिल्में फेंड्री और सैराट इतनी चर्चित और लोकप्रिय रही हैं कि ढेर सारे गैर-मराठी भाषियों ने भी उन्हें देखा. इस तरह नागराज हिंदी में अनजान नहीं है, लेकिन जहां तक झुंड का सवाल है तो यह उनकी पिछली फिल्मों जैसी ऊंचाइयों को नहीं छू पाती. यह उन फिल्मों की तरह दर्शक को झकझोर नहीं पाती. हालांकि इस फिल्म का दायरा बड़ा है. उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम तक विशाल भारत की झोपड़पट्टियों में ऐसे लाखों युवा हैं, जो मिल जाएं तो झुंड हैं और संवर जाएं तो देश का गौरव हैं.

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फिल्म की कहानी सहज-सरल है. नागपुर के बीचोंबीच गरीबों-उपेक्षितों की एक बस्ती है, जिसमें रहने वाले किशोरवय और युवा छोटे-मोटे अपराध, लूट और नशे का सामान बेच कर धन कमाते हैं. वे खुद भी नशा करते हैं और भटके हुए हैं.

मार-पीट करने से लेकर चाकू-छुरे चला देना इनका रोज का काम है. कॉलेज से रिटायर होने जा रहे प्रोफेसर विजय बोराड़े (अमिताभ बच्चन) इन्हें एक दिन देखते हैं. जब बरसात में ये बच्चे मैदान में एक छोटे ड्रम को फुटबॉल बना देते हैं और प्रो. विजय को लगता है कि अगर इन्हें सही प्रशिक्षण मिले तो ये शानदार खिलाड़ी बन सकते हैं. फिल्म इसी ट्रैक पर आगे बढ़ती है.

जिसमें झोपड़ पट्टी के इन बच्चों का कॉलेज स्टूडेंट्स से मैच, देश भर के स्लम्स का टूर्नामेंट और फिर इंटरनेशनल स्लम सॉकर चैंपियनशिप के लिए विजय की पहल पर भारत की टीम को बुलावे जैसी घटनाएं सामने आती हैं. इन्हीं घटनाओं के बीच तमाम किरदारों के निजी मिजाज और संघर्ष भी प्रकट होते रहते हैं. फिल्म की मुख्य कथा के बीच कई छोटे-छोटे दृश्यों के माध्यम से नागराज मंजुले लगातार सामाजिक-राजनीतिक टिप्पणियां करते हैं.

उनकी पक्षधरता साफ नजर आती है और फिल्म में जय भीम का नारा गूंजता है. अमिताभ बच्चन बाबा साहेब आंबेडकर के विशाल चित्र को प्रणाम करते नजर आते हैं. अमिताभ का परफॉरमेंस शानदार है और आम किरदारों के बीच वह अपनी महानायक वाली छवि की कहीं झलक नहीं आने देते.

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178 मिनट की झुंड की दो प्रमुख समस्याएं हैं. एक रफ्तार और दूसरी लंबाई. खास तौर पर पहले हिस्से में झुंड काफी धीमी है. नागराज बहुत डीटेल्स में जाते हैं और जीवन का एक-एक दृश्य इत्मीनान से पर्दे पर उतारते हैं. दृश्य जंचते तो हैं मगर उनमें संवेदने का स्तर पर दोहराव अधिक हो जाता है. कहानी ठहरी रहती है. कुछ अतिरिक्त और लंबे दृश्यों से कहानी की लंबाई बढ़ गई है. कुछ किरदार भी अतिरिक्त दिखते हैं. अपनी बात कहने के लिए नागराज यहां लंबे रास्तों पर चले हैं. यह बात उनकी पिछली फिल्मों में नहीं थी. झुंड के दूसरे हिस्से में रफ्तार है और वह तेज घटनाक्रमों से बढ़ती है.

हालांकि यहां भी नागराज डीटेल्स में जाकर समाज और व्यवस्था पर तीखी चोट करते हैं. खास तौर पर रिंकू राजगुरु का ट्रेक. ग्रामीण अनपढ़ माता-पिता की बेटी बनी रिंकू जब पासपोर्ट बनवाने के लिए भटक रही होती हैं तो सिस्टम की पोल खोलता हुआ एक व्यक्ति कहता है, यहां आदमी की पहचान के लिए जीते-जी भी कागज चाहिए और मरने के बाद भी कागज से ही पहचान होती है. सामने जिंदा आदमी की अपने आप में कोई पहचान नहीं है.

फिल्म बताती है कि समाज के रूप में हम, हाशिये पर रहे लोगों की तरफ मुड़ कर भी नहीं देखते. वे जीएं, चाहें मरें. उनके लिए मौके नहीं के बराबर हैं. सरकार, व्यवस्था और समाज उनके प्रति लगभग संवेदनहीन हैं. जबकि चीजों को सुधारा जाए तो यहीं से चैंपियन निकल सकते हैं. और बात सिर्फ खेल की नहीं है. इसकी फिल्म की सबसे बड़ी खूबसूरती इसके किरदार हैं. झोपड़पट्टियों में स्टाइल मारने वाले बॉलीवुड के नकली हीरो यहां नहीं हैं.

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जो बनावटी अंदाज में टपोरीगिरी करते हैं. यहां किरदार बिल्कुल सच्चे हैं. सभी कलाकारों ने दी गई भूमिका में जान डाली है और उनकी झलक आपकी यादों में रह जाती है. भविष्य में बॉलीवुड का सिनेमा कैसा हो सकता है, इसकी एक झलक आपको झुंड में दिखाई देती है.

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