एशिया का पहला ग्रैंडमास्टर! एक ऐसा शतरंज जीनियस, जो हर बाधा पार कर बना ‘मास्टर सुल्तान’

आज ‘मीर सुल्तान खान (Mir Sultan Khan)’ के नाम पर शायद धूल की परत जम गई है, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अपने समय में शतरंज की बिसात पर उन्होंने अच्छे-अच्छों को मात दी है। भारतीय शतरंज के दिग्गज खिलाड़ी, विश्वनाथन आनंद ने ग्रैंडमास्टर डेनियल किंग की किताब ‘सुल्तान खान – द इंडियन सर्वेंट हू बिकम चेस चैंपियन ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर  के प्रस्तावना में सुल्तान खान की प्रतिभा के बारे में बात की है।



किताब की भूमिका में वह लिखते हैं कि भले ही सुल्तान खान के खेल को काफी समय हो चुका है, लेकिन उन्हें अंतरराष्ट्रीय शतरंज के दिग्गजों को मात देने वाले पहले एशियाई के रूप में याद किया जाना चाहिए।

1920 के दशक के अंत और 30 के दशक की शुरुआत में, मीर सुल्तान खान, शतरंज की दुनिया में एक सितारा बनकर चमकने लगे थे।

पांच साल के अपने अतंरराष्ट्रीय करियर में सुल्तान ने 1929, 1932 और 1933 में प्रतिष्ठित ब्रिटिश शतरंज चैंपियनशिप जीती और अकिबा रुबिनस्टीन, सालो फ्लोहर, जोस राउल कैपब्लांका और सेविली टार्टाकॉवर सहित खेल के ‘व्हाइट’ मास्टर्स को मात दी।

आज भले ही सुल्तान खान के नाम को भुला दिया गया है, लेकिन एक समय था जब शतरंज के उनके बेहतरीन दांव-पेंच  को देखते हुए उन्हें ‘जीनियस’, ‘आधुनिक समय का सबसे महान खिलाड़ी’ और ‘एशिया का पहला ग्रैंडमास्टर’ कहा जाता था।

सुल्तान (Mir Sultan Khan) को पिता से विरासत में मिला शतरंज

मीर सुल्तान खान (Mir Sultan Khan) का जन्म 1903 में खुशाब जिले (वर्तमान पाकिस्तान) के मीठा तिवाना गाँव में हुआ। सुल्तान, पीर (सूफी आध्यात्मिक मार्गदर्शक) और अवान जनजाति के जमींदारों के परिवार से थे। सुल्तान ने शतरंज के दांव-पेंच अपने पिता मियां निजाम दीन से सीखा।

बचपन में वह अपने भाइयों के साथ नियमित रूप से यह खेलते थे।

हालाँकि, अपनी किशोरावस्था के अंत तक, सुल्तान ने पास के शहर सरगोधा में जमींदारों और शतरंज में दिलचस्पी रखने वाले दूसरे लोगों के साथ खेल खेलना शुरु कर दिया था।

सुल्तान पर घर की कोई खास जिम्मेदारियां नहीं थी। उन्होंने शतरंज के भारतीय फॉरमेट पर ध्यान देना शुरु किया।
उस समय पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में शतरंज के नियम काफी अलग थे। 21 साल की उम्र तक, उन्हें अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत में सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी माना जाने लगा था।

उनकी शानदार प्रतिभा से अमीर जमींदार सर उमर तिवाना काफी ज्यादा प्रभावित हुए। सर उमर तिवाना, साम्राज्य के एक जाने-माने वफादार थे और अंग्रेजों के साथ अच्छा उठना-बैठना था।

लंदन कैसे पहुंचे सुल्तान?

सुल्तान के कौशल को देखकर सर उमर हैरान थे। कला और खेल को महत्व देने वाले सर उमर ने सुल्तान के सामने एक प्रस्ताव रखा। उन्होंने सुल्तान से पड़ोसी गांव कालरा में सर उमर की संपत्ति में एक शतरंज टीम बनाने का अनुरोध किया।

इसके बदले सुल्तान को हर महीने कुछ पैसे, बोर्ड और रहने के लिए जगह देने की पेशकश की गई।

सर उमर की संपत्ति पर ट्रेनिंग करते हुए, सुल्तान ने 1928 की ऑल इंडिया शतरंज चैंपियनशिप में भाग लिया, जहां उन्होंने नौ मैचों में केवल आधा अंक गिराकर शानदार प्रदर्शन के साथ जीत हासिल की।

अगले वर्ष सर उमर, सुल्तान को लंदन ले गए, जहां उन्हें इंपीरियल शतरंज क्लब के सदस्य के रूप में शामिल किया गया।

यहीं पर उन्होंने पश्चिमी देशों में शतरंज खेलने के तरीके और नियम को जाना व सीखा। पश्चिम देशों में शतरंज खेलने के नियम भारतीय रूप से काफी अलग थे। यहां यह भी गौर करने वाली बात है कि उस समय शतरंज अमीर लोगों का खेल था।

किसी खिलाड़ी को टूर्नामेंट में भाग लेने के लिए क्लब की सदस्यता लेनी पड़ती थी, जिसकी फीस काफी महंगी होती थी।

युरोप में दर्ज की सबसे बड़ी जीत

पश्चिमी देशों के नियमों के अनुसार खेल में सीमित अनुभव होने के बावजूद, सुल्तान जिस साल इंग्लैंड पहुंचे, उसी साल उन्होंने रामसगेट में आयोजित ब्रिटिश शतरंज चैंपियनशिप जीत ली।

उस समय दुनिया का एक बड़ा हिस्सा ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन था, इसलिए इस विशेष टूर्नामेंट ने विश्व चैंपियनशिप का दर्जा हासिल किया था। इस जीत के बाद, पूरे यूनाइटेड किंगडम और यूरोप से उनके पास खेलने का निमंत्रण आया।

हालांकि, उन्होंने मई 1930 में यूरोप जाने से पहले, नवंबर 1929 में एक बार घर जाने का फैसला किया।
इसके बाद, जब वह 1930 में यूरोप गए, तो उन्होंने स्कारबोरो टूर्नामेंट, हैम्बर्ग ओलंपियाड और लीज टूर्नामेंट सहित कई टूर्नामेंटों में भाग लिया।

इन टूर्नामेंट्स में उनके सबसे बड़े प्रतिद्वंदी बेल्जियम के शतरंज मास्टर विक्टर सोल्टनबीफ थे। 30 दिसंबर 1930 को, सुल्तान ने इंग्लैंड में 11वें हेस्टिंग्स क्रिसमस शतरंज महोत्सव में उस समय के चैंपियन जोस राउल कैपब्लांका के खिलाफ अपनी सबसे बड़ी जीत दर्ज की।

जोस राउल कैंपब्लांका, क्यूबा के एक प्रतिभाशाली खिलाड़ी थे, जो 1921 और 1927 के बीच विश्व शतरंज चैंपियन रहे और उन्हें अब तक के सबसे महान शतरंज खिलाड़ियों में से एक माना जाता है। सुल्तान ने कुछ शानदार रणनीति अपनाते हुए उन्हें खेल में हराया था।

सुल्तान (Mir Sultan Khan) को माना जाता था ‘एंड गेम मास्टर’

कई साल बाद सुल्तान से मिलने पर कैपब्लांका ने लिखा, “ऐसी परिस्थितियों में भी वह एक चैंपियन बनने में सफल रहे, यह बताता है कि वह शतरंज के जिनियस हैं।” इसके अगले साल, सुल्तान ने पोलिश-फ्रांसीसी शतरंज मास्टर सेविली टार्टाकॉवर को भी 12-गेम मैच में हराया, जो 6.5-5.5 पर खत्म हुआ।

उसी वर्ष, उन्होंने प्राग इंटरनेशनल टीम टूर्नामेंट में भाग लिया, जहां अन्य कंटेस्टेंट के बीच, उन्होंने चेक खिलाड़ी सालो फ्लोहर और पोलिश शतरंज मास्टर अकीबा रुबिनस्टीन को हराया।

रुबिनस्टीन को कुछ शतरंज इतिहासकारों ने एक ऐसे महान खिलाड़ियों में से एक माना है, जो विश्व शतरंज चैंपियन कभी नहीं बन सके। सुल्तान ने अपना एक मैच, उस समय के विश्व चैंपियन अलेक्जेंडर अलेखाइन के साथ ड्रॉ भी किया।

अगले दो सालों (1932 और 1933) में, सुल्तान ने ब्रिटिश शतरंज चैंपियनशिप जीती, जबकि पूरे यूरोप में कैम्ब्रिज टूर्नामेंट (1932), बर्न टूर्नामेंट (1932) और फोकस्टोन ओलंपियाड (1933) जैसे अन्य टूर्नामेंटों में भी अपनी पहचान बनाई।

एक शतरंज खिलाड़ी के रूप में, सुल्तान की ताकत मिडिल गेम और एंड-गेम में मानी गई। दरअसल, उन्हें एंड गेम का मास्टर माना जाता था, जो अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखते हुए बहुत कठिन परिस्थितियों से बाहर आ सकते थे।

 

सुल्तान के गेम को क्यों कहा जाता था ‘खान का क्रोध’?

सुल्तान के बेटे एथर सुल्तान और पोती अतियाब सुल्तान ने अखबार, डॉन के लिए एक कॉलम में लिखा, “बाहर से जोश से भरपूर दिखने के बावजूद, उनका शतरंज का खेल साहसिक और कुशल था और इसलिए उनकी खेल शैली को ‘खान का क्रोध’ (wrath of Khan) भी कहा जाता था।”
हालांकि, उनके खेल में कुछ कमजोरियां भी थीं।

डेनियल किंग बताते हैं कि उनके खेल में शुरुआत काफी खराब होती थी। इसका मुख्य कारण था कि वह पश्चिमी शतरंज खेलते हुए बड़े नहीं हुए, हालांकि उन्होंने काफी कुछ समझने की कोशिश की और कुछ ओपनिंग सीखी। सुल्तान विविधताएं नहीं, बल्कि सिस्टम खेलते थे और कभी-कभी उन्होंने शुरुआत में ही भयानक गलतियां कीं।

साल 1933 की शुरुआत तक, सर उमर ने भारतीय प्रतिनिधियों और ब्रिटिश साम्राज्य के बीच गोलमेज सम्मेलनों में भाग लेने के बाद, सुल्तान के साथ महाद्वीप छोड़ दिया था। सर उमर अब अपनी यूरोपीय यात्राओं पर नहीं जा रहे थे, सुल्तान के पास महाद्वीप की यात्रा और टूर्नामेंट की फीस देने के लिए के लिए इतने पैसे और संसाधन नहीं थे।

हालांकि एथर सुल्तान और अतियाब ने अपने कॉलम में लिखा है कि सुल्तान ने अपना बाकी का जीवन, अपने पुश्तैनी खेतों में खेती करते हुए बिताया। लेकिन द ट्रिब्यून की एक रिपोर्ट कुछ और ही कहती है।

क्या कहती है ट्रिब्यून की रिपोर्ट?

6 सितंबर 2020 को प्रकाशित रिपोर्ट में द ट्रिब्यून अखबार के अर्काइव का हवाला देते हुए कहा गया है कि खान (Mir Sultan Khan) 1940 तक सक्रिय थे। समाचार रिपोर्टों में कहा गया है कि उन्होंने ब्रिटेन में नाम बनाने के बाद, मुंबई आकर 40 खिलाड़ियों के साथ एक साथ मैच खेले। एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि उन्होंने 20 खिलाड़ियों के खिलाफ सिमुल टूर्नामेंट खेले और सभी गेम जीते।

वह टूर्नामेंट फरवरी 1940 में डेरा इस्माइल खान में आयोजित किया गया था। खान ने अपने इस कारनामे के लिए गवर्नर्स ट्रॉफी जीती थी।

विभाजन के समय, सुल्तान ने वर्तमान पाकिस्तान में रहने का फैसला किया, जहां उनकी पत्नी और पांच बेटों और उनके छह बच्चों का परिवार रहता था। 1966 में सरगोधा में उनका निधन हो गया और भलवाल में उनकी संपत्ति पर उन्हें दफनाया गया। लेकिन वह अपने पीछे जो विरासत छोड़ गए हैं, वह काफी असाधारण है।

भले ही शतरंज की ऐतिहासिक रेटिंग की गणना करने वाले Chesmetrics.com ने सुल्तान को दुनिया में नंबर 6 के रूप में स्थान दिया, लेकिन FIDE के वैश्विक शतरंज अधिकारी उन्हें भूल गए हैं। 1950 में, विश्व शतरंज शासी निकाय, FIDE, ने रिटायर्ड शतरंज दिग्गजों के विशिष्ट करियर को मान्यता देने के लिए अंतर्राष्ट्रीय ग्रैंडमास्टर और अंतर्राष्ट्रीय मास्टर के खिताब से सम्मानित किया। जबकि रुबिनस्टीन और टार्टाकॉवर को ग्रैंडमास्टर का टाइटल मिला, लेकिन सुल्तान को कहीं भी जगह नहीं दी गई।

error: Content is protected !!