एक झाड़ू लगाने वाली मां की कहानी: जिसके रिटायरमेंट पर कलेक्टर, इंजीनियर और अफसर बेटे पहुंचे थे

किसी नौकरी में अपनी पूरी जिंदगी देना, जो काम मिले उसे निष्ठा से करना. कई बार लोगों के ताने सुनना और अवहेलना को झेलना, प्रोत्साहन की आस में साल दर साल निकालना और फिर एक दिन नौकरी पूरी कर के रिटायर हो जाना! रिटायरमेंट हर किसी कर्मचारी के जीवन का बहुत खास दिन होता है. बहुत सारे अनुभवों के साथ वह अपनी नौकरी से विदाई लेता है और पूरा विभाग आखिरी दिन उसके किए कामों की तारीफ करता है, पर एक स्वीपर, झाड़ू लगाने वाली साधारण सी औरत के रिटायरमेंट का दिन उसके लिए इसी तरह खास हो सकता है?



हम में से ज्यादातर लोग शायद यही सोचें कि यह बहुत ही साधारण सा रिटायरमेंट होगा. ऐसा होता भी लेकिन ऐसा ही एक रिटायरमेंट तब खास हो गया जब उस पार्टी में तीन वरिष्ठ अधिकारी पहुंचे. ये और कोई नहीं बल्कि उस झाड़ू लगाने वाली साधारण सी औरत के बेटे थे! तो चलिए आपको बताते हैं इसके पीछे के संघर्ष की कहानी!

वो यादगार पार्टी

हालांकि, यह रिटायरमेंट पार्टी आज या कल की नहीं है पर इस पार्टी की प्रमुख यानि जिनके रिटायरमेंट का आयोजन किया गया था वो सुमित्रा देवी बहुत खास हैं. 4 साल पहले झारखंड के रामगढ़ जिले के रजरप्पा टाउनशिप से सुमित्रा देवी का रिटायरमेंट हुआ. सुमित्रा ने वहां 30 साल तक साफ सफाई की जिम्मेदारी निभाई थी. वे टाउनशिप में झाड़ू लगाने का काम करती थीं.

वैसे तो सुमित्रा जैसे कर्मचारियों के जाने से टाउनशिप वालों को कोई खास फर्क नहीं पड़ता, लेकिन उस दिन सुमित्रा के लिए खास आयोजन किया गया. वजह ये थी कि सुमित्रा के तीनों बेटे कार्यक्रम में शिरकत करने वाले थे. उनमें से एक बिहार में सिवान जिले के कलेक्टर महेंद्र कुमार, दूसरे रेलवे के चीफ इंजीनियर वीरेंद्र कुमार और तीसरे थे मेडिकल अफसर धीरेंद्र कुमार. ये तीनों अपने प्रदेश के वरिष्ठ अधिकारियों में से थे.

बेटों के आने से सुमित्रा का साधारण सा रिटायरमेंट बहुत खास बना और इस पार्टी ने पूरे देश में सुर्खिंयां बंटोरी. क्योंकि इस पार्टी से पहले तक कोई नहीं जानता था कि सुमित्रा उन तीन अधिकारयों की मां हैं. बेटों के अधिकारी बन जाने के बाद भी सुमित्रा ने अपना काम बंद नहीं किया था इसलिए उनके साथी और टाउनशिप के लोग भी नहीं जानते थे कि वे इतनी खास हैं. कार्यक्रम में जब सुमित्रा के तीनों बेटे लाल ब​त्ती वाली कारों से उतरे तो लोगों को समझ आया कि ये कोई साधारण महिला की रिटायरमेंट पार्टी नहीं हैं.

आज ​सुमित्रा के बारे में बात इसलिए ​की जा रही है क्योंकि उस रिटायरमेंट पार्टी के 4 साल पूरे हो चुके हैं. वैसे इस पार्टी को खास बनाने वाले तीनों बेटों को काबिल बनाने वाली सुमित्रा की कहानी संघर्ष से भरी है.

दुनिया के तानों ने बनाया मजबूत

उस दिन वह पार्टी किसी फिल्म ड्रामे से कम नहीं थी, क्यों​कि 30 साल में पहली बार सुमित्रा ने दुनिया के सामने अपने बेटों खड़ा किया था और उसी दिन पहली बार अपने संघर्ष की पूरी कहानी कही. सुमित्रा बताती हैं कि जब शादी हुई थी तो मेरी उम्र बहुत ज्यादा नहीं थी, मैं गरीब परिवार से आई थी और जिस परिवार में पहुंची वहां की आर्थिक स्थितियां भी बहुत खास नहीं थीं.

लेकिन एक बात है जो मैं जानती थी, वो ये कि शिक्षा से हर हालात बदले जा सकते हैं. मैं पढ़ना चाहती थी लेकिन हमारे समाज-परिवार में बेटियों की शिक्षा पर कभी जोर नहीं दिया गया, सो मैं पढ़ नहीं पाई. जब भी दूसरे बच्चों को स्कूल जाते देखा तो सोचती थी कम से कम इतना पढ़ लूं कि खुद का नाम लिख सकूं पर नहीं कर पाई. शादी के बाद पति की मदद के लिए छोटे मोटे काम करती रही.

इस बीच मां बनी, एक के बाद एक तीन बेटों का जन्म हुआ. परिवार की जिम्मेदारियां आईं और पढ़ाई का सपना चूर-चूर हो गया. लेकिन फिर जब मेरे पहले बेटे महेंद्र के स्कूल में दाखिले की बात सामने आई तो मुझे लगा कि अभी भी उम्मीद जिंदा हैं. मैं नहीं तो मेरे बच्चे पढ़ेंगे. लेकिन इस बीच पति का निधन हो गया. परिवार और समाज का कोई व्यक्ति आर्थिक मदद के लिए सामने नहीं आया.

लगा कि अगर अब काम नहीं किया तो मेरी तरह मेरे बच्चे भी अनपढ़ रह जाएंगे. टाउनशिप में सफाई का काम मिला. सुमित्रा कहती हैं कि मेरे बच्चे शुरू से ही मेरी बहुत मदद करते थे. हमारे पास खाने के पैसे नहीं थे, अच्छी यूनीफार्म और स्कूल का सामान खरीदने तक की स्थिति नहीं थी पर उन्होंने कभी मांग नहीं की. मैं जो रूखा-सूखा उन्हें खिलाती थी वो खाते थे और सरकारी स्कूल में पढ़ते रहे. जब उनके अच्छे नम्बर आते थे तो ​मेरा विश्वास और मजबूत होता जाता था. लोग कहते थे एक झाड़ू लगाने वाली के बच्चे कितना ही पढ़ लेंगे?

आगे चलकर उन्हें भी तो यही काम करना है! कुछ लोग निचली जाति होने का ताना भी कसते थे पर मैं सबकुछ चुपचाप सहती थी. ये सोचकर कि मेरी नौकरी से मेरे बच्चों का भविष्य बन सकता है. सुमित्रा कभी अपने बच्चों के स्कूल नहीं जाती थीं, ताकि उनके साथी ये ना सोचे कि वे झाड़ू लगाने वाली औरत के बच्चे हैं. हालांकि बेटों ने कभी अपनी मां का सिर झुकने नहीं दिया.

मुझे हर जन्म चाहिए मेरी मां

सिवान जिले के तत्कालीन कलेक्टर महेंद्र कुमार जो अब सुपौल के डीएम हैं, वे कहते हैं कि मैंने बचपन से अपनी मां को लोगो का मजाक बनते देखा पर वो कभी हमारे सामने कमजोर नहीं पडीं. उन्होने हमारी पढ़ाई में कभी कोई परेशानी नहीं आने दी. जब जिस चीज की जरूरत हुई तब वो मिल गई, फिर चाहे मां को उसके लिए ज्यादा काम ही क्यों ना करना पड़ा हो.

दोनों छोटे भाई वीरेंद्र और धीरेन्द्र कुमार भी कहते हैं कि जब मां को मेहनत करते देखा और देखा कि भाई मन लगाकर पढ़ाई कर रहे हैं तो हमने भी तय कर लिया कि देर लगेगी पर हम तीनों मिलकर एक दिन मां के इस त्याग का फल जरूर देंगे. वो कहते हैं कि हमारे घर में लाइट नहीं थी, तो स्ट्रीट लाइट के नीचे, कभी दोस्तों के यहां तो कभी चौराहे पर जाकर पढ़ाई करते थे. हम जहां होते थे, मां वहीं खाना लाकर खिलाती थी.

जब बच्चों को ये पता चला कि हमारी मां सफाई करती है तो उन्होंने मजाक भी बनाया पर मां यही समझाती थी कि कोई काम छोटा नहीं होता ना ही उसे करने से कोई छोटा बनता है. यह सोच और समझ की बात है. अगर हमें छोटी सोच से उठना है तो जितना ज्यादा हो शिक्षा ग्रहण करो और हम तीनों भाईयों ने वही किया. उस दिन के रिटायरमेंट समारोह में तीनों भाईयों ने अपनी मां के लिए बस एक ही बात कही,

”तुम जैसी मां हमें हर जन्म में चाहिए और इस लाइन में इतनी ताकत थी कि सुमित्रा पहली बार उनके सामने रो पड़ी. तो दोस्तों, इस पूरे वाक्ये और सुमित्रा को जानकर हमे इतना तो समझ ही जाना चाहिए कि परिस्थितियों को बदलना हमारे हाथ में हैं. शिक्षा से हर कमी पूरी हो सकती है, सोच की, पैसे की, इज्जत की और बदलाव की इच्छा की.”

उम्मीद है कि अब जब हमें सुमित्रा जैसे कोई सफाई कर्मी दिखेंगे तो हम उन्हें सम्मान की नजर से देखेंगे क्योंकि वे ना केवल हमारे आसपास का कचरा साफ कर रहे हैं बल्कि उनमें ताकत है, समाज को साफ-सुथरे छवि वाले गुणी लोग देने की!

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