क्यों महात्मा गांधी पर भरोसा नहीं था सरदार पटेल को.. पढ़िए

जून 1916 की एक शाम। बैरिस्टर वल्लभभाई पटेल अहमदाबाद के नामचीन गुजरात क्लब में शहर की नामवर शख़्सियतों के बीच अपना पसंदीदा खेल ब्रिज खेल रहे थे। उसी वक़्त एक शख़्स दाखिल होता है वहां। दक्षिण अफ्रीका से लौटकर देश में आज़ादी की लड़ाई के लिए जनमत जुटाने को वह हर जगह घूम रहा था। इसी ख़ास काम के लिए आना हुआ था उसका क्लब में। साथी वकीलों ने वल्लभभाई को इस बारे में बताया। उस शख़्स की बातें सुनने के लिए दरख्वास्त की। जिरह चली, पर वल्लभभाई टस से मस ने हुए। उस इंसान को लौटना पड़ा।



 

वल्लभाई ने सनकी ठहराते हुए जिसके विचारों का मज़ाक़ बनाया और मुलाकात की पेशकश को सिगार के धुएं में उड़ा दिया, वह कोई और नहीं, बल्कि महात्माा गांधी थे। गांधीजी चाहते थे स्वतंत्रता की सोच वाले लोगों को साथ जुटाकर अहमदाबाद में आश्रम बनाना। इसी सिलसिले में कुछ समय बाद उनका फिर गुजरात क्लब जाना हुआ। इस बार मनुहार कर किसी तरह वल्लभभाई को गांधीजी से मिलाया गया।

 

इस मुलाकात के दौरान इंग्लैंड से लौटे बैरिस्टर वल्लभभाई सिगार का धुआं छोड़ते रहे और गांधीजी अपनी बात करते रहे। कुछ देर बाद पटेल को अहसास हुआ कि यह आदमी सिर्फ हवा में बातें नहीं कर रहा। जो कहता है, वह करता भी है। अपने आदर्शों और आज़ादी के प्रति अकूत गंभीरता है उसमें। एक क़िताब में पटेल ने कहा भी है, ‘मुझे गांधी के विचारों या हिंसा-अहिंसा से कोई लेना-देना नहीं था। उस मुलाकात में बस जो बात मुझ पर जादू कर गई, वो यह थी कि गांधीजी ने अपने उद्देश्यों को पाने के लिए अपना सर्वत्र, अपना संपूर्ण जीवन सचमुच में समर्पित कर दिया और देश को सच में आज़ाद कराना चाहते थे। उनमें कोई ढकोसला मुझे नहीं दिखा।’ बस यहीं से गांधीजी के प्रति पटेल की सोच बदल गई।

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अपने जीवन के शुरुआती करीब चार दशक बैरिस्टरी का शानदार करिअर बनाने और बड़ा आदमी बनने में खपाने वाले वल्लभभाई की दिशा यहीं से बदली। क्लब की चुहलबाजी में गांधीजी की नसीहतों का उन्होंने मज़ाक़ उड़ाना बंद कर दिया। वह उनके अटूट अनुयायी बन गए। सोच बदल गई, काम बदल गए। महात्मा गांधी के कहने पर पटेल साल 1928 में बारदोली के किसान आंदोलन में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ न सिर्फ कूद पड़े, बल्कि इस लड़ाई की अगुवाई भी की। और तभी पहली बार गांधीजी ने उनकी संगठन शक्ति से प्रभावित होकर उन्हें कहा, सरदार। फिर यह खिताब हमेशा के लिए उनके साथ जुड़ गया।

 

नापसंदगी से शुरू हुआ गांधी और सरदार का यह रिश्ता समय बीतने के साथ इस कदर मिठासभरा और खुला-खुला हो गया कि एक-दूसरे की चिंता किए बगैर दोनों को चैन नहीं था। दोनों में उम्र का अंतर महज 8 साल का था, लिहाजा गांधीजी से पटेल बेतकल्लुफ हो जाते। जो बात कहने की जुर्रत किसी की न होती, वो पटेल धड़ल्ले से कह देते। गांधीजी को उल्टा-सीधा सुनाने के बावजूद दोनों के रिश्तों पर कभी कोई असर नहीं दिखा। कई राष्ट्रीय मसलों पर दोनों के विचारों में हमेशा जबरदस्त विरोधाभास तक रहा।

 

महात्मा गांधी से आत्मीयता के बावजूद उनके प्रति पटेल की दोटूक बयानगी हमेशा रही। आज़ादी के बाद जब वह देश के पहले गृहमंत्री बने, तब उनका बयान इसकी तस्दीक करता है। यह बयान अहमदाबाद स्थित सरदार पटेल संग्रहालय में एक तख्ती पर दर्ज है।

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सरदार पटेल ने कहा था, ‘मुझे राज चलाना है, बंदूक रखनी है, तोप रखनी है, आर्मी रखनी है। गांधीजी कहते हैं कि कुछ न करो, तो मैं वह नहीं कर सकता, क्योंकि मैं 30 करोड़ (भारत की तब की जनसंख्या) का ट्रस्टी हो गया हूं। मेरी जिम्मेदारी है कि मैं सबकी रक्षा करूं। देश पर हमला होता है, तो मैं बर्दाश्त नहीं करूंगा, क्योंकि मेरी जिम्मेदारी है। मैंने गांधीजी को कहा, आपका रास्ता अच्छा है, लेकिन मैं वहां तक नहीं जा पाता हूं।’

 

वहीं, सरदार पटेल के बारे में महात्मा गांधी ने कहा था, ‘सरदार के साथ जेल में बिताए गए दिन मेरे जीवन के सर्वाधिक आनंददायी क्षणों में से हैं। मेरे प्रति उनका वात्सल्य और परवाह मुझे मेरी मां की याद दिलाता था। मैंने कभी कल्पना तक नहीं की थी कि उनमें ऐसा दुर्लभ मातृत्व गुण है।’

 

उस समय के कांग्रेसी नेता किशोर मशरूवाला ने दोनों के संबंधों के बारे में कहा था कि गांधी और पटेल का रिश्ता भाई-भाई जैसा था। वहीं, गांधी और नेहरू का रिश्ता पिता-पुत्र की तरह। महात्मा गांधी ने राज्याभिषेक के समय वफादार और भरोसेमंद आदर्श छोटे भाई के बजाय पुत्र नेहरू को प्राथमिकता दी।

 

पटेल के सार्वजनिक जीवन की शुरुआत अहमदाबाद नगरपालिका की राजनीति से हुई थी। पहले पार्षद बने, फिर पालिका प्रमुख। पटेल अहमदाबाद में ही रमे रहना चाहते थे, लेकिन गांधीजी उन्हें जिद कर साथ ले गए। वल्लभभाई के म्युनिसिपल जीवन पर ‘सरदार पटेल – एक सिंह पुरुष’ नाम से क़िताब लिखने वाले अहमदाबाद निवासी इतिहास के प्रफेसर डॉ. रिजवान कादरी बताते हैं, ‘साल 1933 में एमजे लाइब्रेरी की स्थापना के मौके पर महात्मा गांधी ने अपने भाषण में कहा था कि जहां तक मेरी नज़र जाती है, सरदार का काम दिखता है। वह अहमदाबाद के आधुनिक निर्माता हैं।’

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साबरमती नदी के कायाकल्प की सोच सरदार पटेल की ही थी। वह तीन बार चेयरमैन रहे और अपने कार्यकाल में अहमदाबाद को बदलकर रख दिया। एक बार शहर में छह दिन तक लगातार बारिश हुई। सारा शहर पानी में डूब गया। वह रोज पानी में पैदल दौरा करते और काम कराते। अंग्रेज़ सरकार ने उनसे प्रभावित होकर भारी-भरकम सहायता राशि भी दी। उनमें सादगी इस कदर थी कि चेयरमैन रहते भी 11 नंबर की सरकारी बस से चलते थे।

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