नई दिल्ली. फांसी जैसा शब्द सुनते ही किसी भी शख्स को दिन में तारे नजर आने लग जाते हैं और जिंदगी और मौत के बीच फासला डराने लगता है। ठीक 40 साल पहले दिल्ली की तिहाड़ जेल में हुई 20वीं सदी के एक फांसी इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गई है, जबकि दोषी फांसी के बाद 2 घंटे तक जिंदा रहा। उसकी सांसें चलती रहीं और दिल धड़कता रहा। जी हां, 40 बरस पहले 31, जनवरी 1982 को गीता चोपड़ा दुष्कर्म और हत्याकांड में सुप्रीम कोर्ट से मौत की सजा पाए दोषियों रंगा (कुलजीत सिंह) और बिल्ला (जसबीर सिंह) को तिहाड़ जेल में एक साथ फांसी के फंदे पर लटकाया गया था। हैरानी की बात यह है कि फांसी के 2 घंटे बाद जब नियमानुसार डाक्टरों ने जांच की तो बिल्ला तो मर चुका था, लेकिन रंगा की नाड़ी चल रही थी। इस बात समेत कई चीजों का जिक्र दिल्ली के तिहाड़ जेल के पूर्व कानून अधिकारी सुनील गुप्ता और पत्रकार सुनेत्रा चौधरी द्वारा लिखी गई किताब ‘ब्लैक वारंट’ में किया गया है।
फांसी के बाद रंगा और बिल्ला की मौत पर नहीं था किसी को संशय
किताब के मुताबिक, 31 जनवरी, 1982 की सुबह रंगा और बिल्ला को फांसी देने के बाद जेल अधिकारियों के साथ वहां मौजूद जल्लादों (फकीरा और कल्लू) ने भी यह मान लिया था कि फांसी के फंदे पर तय समय तक लटकने के बाद रंगा-बिल्ला दोनों ही मर चुके हैं। फांसी को लेकर इतनी निश्चिंतता थी कि इसके बाद अधिकारी, कर्मचारी और जल्लाद समेत सभी लोग वहां से चले गए, क्योंकि इसके बाद की प्रक्रिया 2 घंटे बाद होनी था।
एक की मौत दूसरा था 2 घंटे तक जिंदा
वहीं, किताब ‘ब्लैक वारंट’ के मुताबिक, रंगा और बिल्ला को फांसी को फांसी देने के 2 घंटे बाद बाद नियमानुसार जब डाक्टर फांसी घर में पोस्टमार्टम से पहले दोनों के शव की जांच करने के लिए गए तो वहां पर हैरान करने वाली बात सामने आई। चिकित्सक ने नाड़ी की जांच में पाया कि बिल्ला तो मर चुका था, लेकिन जब रंगा की नाड़ी जांची तो वह चल रही थी और वह जिंदा था। हैरानी की बात यह थी कि तिहाड़ जेल के अधिकारियों, कर्मचारियों और दक्ष जल्लादों की मौजूदगी में फांसी देने के बाद भी रंगा जिंदा था।
दोबारा खींचा गया लीवर तब हुई रंगा की मौत
चिकित्सक ने जैसे ही यह बात तिहाड़ जेल के आलाधिकारियों को बताई तो वे चौंक गए और वहां पर हड़कंप मच गया। इस दौरान वहां पर दोनों जल्लाद फकीरा और कल्लू भी मौजूद थे और दोनों भी यह जानकर हैरान रह गए कि रंगा 2 घंटे बाद भी जिंदा है। फांसी घर में खूंखार कैदी रंगा के जिंदा मिलने की बात फैली तो जेल कर्मचारियों, जल्लाद और अधिकारियों के बीच हड़कंप मच गया। इसके बाद जल्लाद ने रंगा के गले में लगे फंदे को नीचे से फिर खींचा गया, जिससे उसकी मौत हुई। यही वजह है कि फांसी देने से पहले दोषियों के वजन के बराबर की डमी बनाकर उसका ट्रायल किया जाता है, वह भी कई बार।
बता दें कि दिल्ली की तिहाड़ जेल में वर्षों तक सेवा देने वाले सुनील गुप्ता ने अपनी पुस्तक ‘Black Warrant’ में रंगा-बिल्ला की फांसी से जुड़े इस मामले का जिक्र किया है। यहां पढ़िये किताब ‘ब्लैंक वारंट’ की खास बातें।
पुस्तक में लिखा है कि तिहाड़ में रंगा और बिल्ला को 31 जनवरी, 1982 को सुबह फांसी दी गई थी। जल्लाद समेत आला अधिकारियों-कर्मचारियों ने यह मान लिया था कि रंगा-बिल्ला दोनों की जान फांसी लगने से जा चुकी है।
सुनील गुप्ता की मानें तो रंगा-बिल्ला को फंदे पर लटकाने के दो घंटे बाद जब डाक्टर फांसी घर में जांचने के पहुंचे तो रंगा की नाड़ी (पल्स) चल रही थी। इसके बाद में रंगा के फंदे को नीचे से खींचा गया और उसकी मौत हुई। वहीं, बिल्ला की मौत फांसी से हो चुकी थी।
वर्ष, 1978 में रंगा और बिल्ला को गीता चोपड़ा (बहन) और संजय चोपड़ा (भाई) के अपहरण के साथ गीता के साथ सामूहिक दुष्कर्म और हत्या के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई थी।
31 जनवरी, 1982 को दोनों को दिल्ली की तिहाड़ जेल में फांसी दी गई थी।
देश में मचे हंगामे के बाद कुल 8 महीने तक यह मामला कोर्ट में चला।
सुप्रीम कोर्ट ने 7, अप्रैल, 1979 को दोनों को फांसी की सजा सुनाई गई थी। इसके बाद कानूनी विकल्पों के खत्म होने के बाद दोनों को तिहाड़ जेल में फांसी दी गई।
रंगा और बिल्ला बेहद खूंखार अपराधी थे। वह कई सालों से लूट, मार पिटाई समेत तमाम घटनाएं अंजाम देते रहे। इसी कड़ी में वर्ष 1978 रंगा और बिल्ला ने दिल्ली में बहन-भाई का फिरौती के लिए अपहरण कर लिया। इनमें बहन गीता चोपड़ा थी, जो आल इंडिया रेडियो में कार्यक्रम देने जा रही थी, साथ में भाई संजय चोपड़ा भी था। दोनों को लिफ्ट देने के बाद रंगा और बिल्ला को पता चला कि दोनों बहन भाई -गीता और संजय चौपड़ा एक नौसेना अधिकारी के बच्चे हैं। पकड़े जाने के डर से रंगा और बिल्ला ने दोनों को मार डाला। हैवानियत के हद तो तब हो गई, जब हत्या से पूर्व गीता चोपड़ा के साथ दुष्कर्म भी किया गया था। इसके बाद लंबी कानूनी लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट से भी कुलजीत सिंह उर्फ रंगा खुश और जसबीर सिंह उर्फ बिल्ला को मौत की सजा सुनाई गई। इसक बाद तमाम औपचारिकताओं के बाद घटना के 4 वर्ष बाद दोनों को फांसी पर लटकाया गया। रंगा और बिल्ला को फांसी देने के लिए तिहाड़ प्रशासन की ओर से फरीदकोट और मेरठ जेलों से 2 जल्लादों फकीरा और कालू को बुलाया गया था।
फांसी से पहले बहुत असहज से खूंखार अपराधी
फांसी दिए जाने से पहले रंगा और बिल्ला बेहद असहज थे। दोनों को इस बात का अहसास भी था कि उन्होंने जो अपराध किया है उसमें फांसी तो तय है। ऐसे में 31 जनवरी, 1982 की सुबह चाय दी गई तो दोनों ने बेमन से पिया। अपनी वसीयत छोड़ने से भी इनकार कर दिया। फिर फांसी की कड़ी में 31 जनवरी 1982 को फांसी के दिन उनके चेहरों को ढक दिया गया और उनके गलों में फंदा डाल दिया गया। किताब ब्लैक वारंट के मुताबिक, रंगा ने मरने से पहले ‘जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’ बोला जबकि बिल्ला रो पड़ा। वहीं जल्लाद द्वारा लीवर खींचे जाने के करीब दो घंटे बाद उनके शवों की जांच करने वाले डाक्टरों ने पाया था कि रंगा की नब्ज चल रही थी। इसके बाद एक गार्ड को उस कुंए में उतारा गया जिसके उपर रंगा का शरीर झूल रहा था । गार्ड ने नीचे उतर कर रंगा के पैर खींचे थे। इसके बाद रंगा और बिल्ला की फांसी की प्रक्रिया पूरी हुई।