21 सालों से कर रही हैं सेवा, हर महीने 20,000 रु. खर्च कर, भरती हैं सैकड़ों बेजुबानों का पेट. पढ़िए….

अहमदाबाद की 45 वर्षीया झंखना शाह पिछले 21 सालों से अपने आस-पास के इलाके के सैकड़ों कुत्तों और दूसरे जानवरों के लिए काम कर रही हैं।
जानवरों से प्यार तो कई लोग करते हैं, लेकिन अहमदाबाद की झंखना शाह का कहना है कि उन्होंने बेजुबानों की सेवा का काम प्यार के कारण नहीं, बल्कि उनके दुःख को देखकर शुरू किया था।



45 वर्षीया झंखना को जानवरों के प्रति लगाव, अपने पिता को देखकर आया था। हममें से कई लोगों की तरह वह भी आस-पास के कुत्तों को रोटी और बिस्किट देती थीं। लेकिन कुछ जख्मी कुत्ते जो चल न पाते हों, उनके लिए खाना हासिल करना मुश्किल होता है और ऐसे कुत्तों के पास जाने से कई लोग घबराते भी हैं। जबकि ऐसे जानवरों को ज्यादा प्यार की जरूरत होती है। झंखना ने सालों पहले ऐसे ही एक कुत्ते को देखा था, जिसकी रीढ़ की हड्डी टूट चुकी थी। वह ठीक से चल भी नहीं पा रहा था। उन्होंने इस कुत्ते का इलाज कराया और इस घटना के बाद, जितने भी जख्मी कुत्ते उन्हें मिलते गए, वह सबके इलाज और खाना जैसे सारी ज़िम्मेदारियां लेती गईं।
इस काम से उनका लगाव ऐसा बढ़ने लगा कि उन्होंने ठान लिया कि वह अपना जीवन इन बेजुबानों की सेवा में ही समर्पित करेंगी। उन्हें, अपने माता-पिता का भी पूरा सहयोग मिला।

सेवा के लिए छोड़ी सरकारी नौकरी 
जब उन्होंने यह काम शुरू किया था, तब वह पढ़ाई कर रही थीं। पढ़ाई के बाद, उन्होंने अहमदाबाद में ही प्राइवेट नौकरी करना शुरू किया। साथ ही वह जानवरों के लिए काम करनेवाले कई NGO से भी जुड़ी हुई थीं, जहां से उन्हें कई तरह की जानकारीयां भी मिलने लगीं।

उन्होंने धीरे-धीरे जानवरों के अधिकारों और उनके प्रति क्रूरता से जुड़ी सजा के बारे में भी जाना। उन्होंने खुद भी लॉ की पढ़ाई की है, इसलिए ये सारी बातें समझना और इस पर अमल करना उनके लिए थोड़ा आसान था।
इसी दौरान, झंखना की GSRTC में सरकारी नौकरी भी लग गई। इस नौकरी में उनके दिन के 14 घंटे चले जाते थे, जिसकी वजह से वह आस-पास के कुत्तों को दो टाइम का खाना भी नहीं खिला पा रही थीं। यह बात उन्हें इतनी परेशान करती थी कि उन्होंने एक महीने में ही नौकरी छोड़ दी।

फिलहाल, वह घर से ही एक कपड़ों का बिज़नेस चलाती हैं और अपनी माँ के साथ रहती हैं। साल 2019 में उन्होंने ज्यादा फण्ड की उम्मीद में,  करुणा चैरिटेबल ट्रस्ट की शुरुआत भी की है। लेकिन अभी तो कुत्तों को रेस्क्यू करने का काम वह अकेले ही करती हैं। जबकि कुत्तों को खाना देने के काम में उनके कुछ दोस्त और रिश्तेदार भी उनका साथ देते हैं। वहीं, ट्रस्ट के माध्यम से उन्हें 40 प्रतिशत आर्थिक मदद मिल जाती है, बाकि का सारा खर्च वह खुद ही उठाती हैं।

तक़रीबन 135 कुत्तों को दो समय का खाना देना उनका रोज़ का काम है। इसके लिए करीब 20 हजार रुपये महीने का खर्च आता है।
अपने काम की सबसे बड़ी चुनौती के बारे में बात करते हुए, वह कहती हैं, “कई लोग खुद तो जानवरों को खाना नहीं देते, लेकिन दूसरों को भी ऐसा करने से रोकते हैं। ऐसे में कुत्ते या दूसरे जानवर कहां जाएंगे। हम सभी को इन बेजुबानों के प्रति थोड़ी ज्यादा मानवता दिखाने की जरूरत है।

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