गोडसे को किसने दी थी वो बेरेटा पिस्टल जिससे की थी गांधी की हत्या? 500 में तय हुआ था सौदा…

Mahatma Gandhi Death Anniversary: 30 जनवरी 1948 को जिस पिस्तौल से गांधी की हत्या हुई, वह साल 1934 में मैन्युफैक्चर की गई थी और 1934 या 1935 में इटली आर्मी के किसी अफसर को मिली थी. बाद में जिस अफसर को यह बंदूक मिली वह इसे अपने साथ अफ्रीका ले गया.महात्मा गांधी की हत्या बैरेटा एम1934 से की गई थी.



 

 

 

 

Mahatma Gandhi Death Anniversary: 30 जनवरी 1948 की उस शाम महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) ने सरदार पटेल से बातचीत के बाद अपना आखिरी भोजन किया. उनके खाने में डेढ़ कप बकरी का दूध, सब्जियों का सूप और तीन संतरे थे. इस दौरान वह कताई भी कर रहे थे. थोड़ी देर बाद पटेल की बेटी मनुबेन ने बापू से कहा कि वह पहले ही प्रार्थना सभा के लिए लेट हो चुके हैं. बापू उठ खड़े हुए. मनु ने उनकी कलम, चश्मे का डिब्बा, नोटबुक, प्रार्थना की माला और थूकदान उठाया और बापू (Mahatma Gandhi) को सहारा देते हुए बाहर निकलीं.

 

 

 

 

 

30 जनवरी 1948 को क्या हुआ था?

30 जनवरी की उस शाम दिल्ली की बिड़ला हाउस में मौजूद लेखक और पत्रकार विंसेंट शीन अपनी किताब ‘लीड, काइंडली लाइट’ में लिखते हैं कि मैं 5 बजे से कुछ पहले ही बिड़ला हाउस में दाखिल हुआ. वहां बीबीसी दिल्ली के संवाददाता बॉब स्टिमसन पहले से मौजूद थे. बॉब ने अपनी घड़ी की तरफ देखा और कहा, ‘बड़ा अजीब है.. गांधी जी कभी इतनी देर नहीं करते…’ हम दोनों यह चर्चा कर रहे थे कि बॉब ने कहा- वह आ गए. उस वक्त घड़ी में 5:12 हो रहे थे.

 

 

 

 

पेंगुइन से प्रकाशित अपनी किताब ‘महात्मा गांधी: मृत्यु और पुनरुत्थान’ में मकरंद परांजपे लिखते हैं कि बापू जब प्रार्थना स्थल पर पहुंचे तो खाकी वस्त्र पहने एक नौजवान भीड़ में से उनकी तरफ प्रणाम करने को झुका. वह शख्स नाथूराम गोडसे था. मनुबेन जब उसे पीछने हटने को कहने लगीं तो उन्हें धकेल दिया. गोडने ने पिस्तौल निकाली और प्वाइंट ब्लैंक से एक के बाद 3 गोलियां चला दीं. जब तक कोई कुछ समझ पाता, बापू लहूलुहान होकर वहीं गिर पडे |

 

 

 

 

कहानी बेरेटा पिस्तौल की

नाथूराम गोडसे (Nathuram Godse) ने महात्मा गांधी को जिस पिस्तौल से गोली मारी वह सीरियल नंबर 606824 वाली 7 चैंबर की सेमी-ऑटोमेटिक एम1934 बेरेटा पिस्टल थी. उन दिनों बेरेटा पिस्टल भारत में बहुत दुर्लभ थी और मुश्किल से मिला करती थी. हालांकि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इटली समेत कई देशों के सैनिक इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे थे. बेरेटा, अपने अचूक निशाने के लिए मशहूर थी और कभी धोखा नहीं देती थी.

 

 

 

 

प्रथम विश्व युद्ध में बनाना शुरू किया हथियार

बेरेटा (Beretta Pistol) बनाने वाली कंपनी यूं तो साल 1526 से वेनिस में बंदूक के बैरल का निर्माण करती थी, लेकिन जब प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत हुई तो कंपनी का बिजनेस अचानक फलने-फूलने लगा. कंपनी ने 1915 में इटली के सैनिकों को हथियार सप्लाई करना शुरू किया. इसी दौरान बंदूक निर्माण की शुरुआत हुई. उसकी पिस्तौल की गुणवत्ता और विश्वसनीयता इतना इतनी सटीक थीं कि देखते-देखते यह सैनिकों में मशहूर हो गई.

 

 

 

 

कैसे हुआ एम1934 का जन्म

1930 के दशक की शुरुआत में, जर्मनी की वाल्थर पीपी पिस्तौल बेहद लोकप्रिय होने लगी. इटली के सैनिक भी इससे प्रभावित हुए. बैरेटा को लगा कि अगर उसने कुछ नया नहीं दिया तो अपना सबसे बड़ा ग्राहक खो देगी. इसी के बाद बैरेटा एम1934 लेकर आई, जो अपने आप में बहुत खास थी. बैरेटा एम1934 एक कॉम्पैक्ट और हल्की बंदूक थी, लेकिन आकार के विपरीत इसका कारतूस पैक बहुत मजबूत था. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बैरेटा ने दस लाख से अधिक एम1934 पिस्टल बेची थी.

 

 

 

 

भारत कैसे आई गांधी की हत्या वाली बंदूक

अब बात करते हैं उस बंदूक की जिससे महात्मा गांधी की हत्या की गई थी. यह बंदूक वास्तव में किसकी थी, यह आज तक पता नहीं लग पाया लेकिन इसके सीरियल नंबर से कुछ कहानी जरूर पता लगती है. जैसे- यह पिस्तौल साल 1934 में मैन्युफैक्चर की गई थी और या तो साल 1934 या 1935 में इटली आर्मी के किसी अफसर को मिली थी. बाद में जिस अफसर को यह बंदूक मिली वह इसे अपने साथ अफ्रीका ले गया. उस वक्त इटली ने एबेसीनिया (अबइथियोपिया) पर हमला कर दिया था. बाद में जब इटली की सेना ब्रिटिश फौज से मुंह की खानी पड़ी तो, 4th ग्वालियर इंफ्रेंटी के ब्रिटिश अफसर ने वॉर ट्रॉफी के रूप में वह बेरेटा पिस्टल हासिल कर ली.

 

 

 

 

तो गोडसे को किसने दी वह बंदूक?

अब सवाल यह है कि महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे तक यह पिस्तौल कैसे पहुंची? इतिहासकार और लेखक डॉमिनिक लापिर और लेरी कॉलिन्स अपनी किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ में लिखते हैं कि नाथूराम गोडसे ने पहले दिल्ली के शरणार्थी शिविरों से पिस्तौल हासिल करने की कोशिश की लेकिन नाकाम रहा. आखिरकार दिल्ली से 194 मील दूर ग्वालियर में उसकी कोशिश सफल हुई. गांधी की हत्या से तीन दिन पहले 27 जनवरी 1948 को ग्वालियर में दत्तात्रेय सदाशिव परचुरे ने उसे पिस्टल दी, जो हिंदू महासभा से जुड़े थे और हिंदू राष्ट्र सेना के नाम से अपना संगठन चला रहे थे.

 

 

 

 

 

500 रुपये में तय हुआ था सौदा

अप्पू एस्थोस सुरेश और प्रियंका कोटामराजू अपनी किताब ‘द मर्डरर, द मोनार्क एंड द फकीर’ (The Murderer, The Monarch and The Fakir,) में लिखती हैं कि नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे एक अच्छे हथियार की तलाश में ग्वालियर पहुंचे. उस वक्त गोडसे के पास एक देशी कट्टा था, लेकिन उसपर भरोसा नहीं किया जा सकता था. जब उन्होंने परचुरे से मदद मांगी तो परचुरे ने हथियार सप्लायर गंगाधर दंडवते से संपर्क किया, लेकिन इतने शॉर्ट नोटिस पर अच्छा हथियार मिल पाना मुश्किल था.

 

 

 

 

 

थक-हारकर दंडवते एचआरएस अफसर जगदीश गोयल के पास पहुंचा और 500 रुपये के बदले उनकी खुद की पिस्तौल मांगी. 24 साल के गोयल अपना हथियार देने को तैयार हो गए. उन्हें 300 रुपये एडवांस दिये गए और 200 बाद में देने का वादा हुआ.

error: Content is protected !!