Sharad Yadav: राजनीति में कबीर जैसे थे शरद यादव, इंदिरा गांधी को सबसे संवेदनशील पीएम मानते थे…विस्तार से पढ़िए….

शरद यादव से मेरी पहली मुलाकात अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षों में हुई और उनसे मेरी आखिरी मुलाकात पिछले साल तब हुई जब गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में भर्ती मुलायम सिंह यादव का हाल जानने मैं गया था और शरद जी भी वहीं आए हुए थे। तब वह बेहद कमजोर लग रहे थे और ऊंचा सुनने लगे थे। कोविड की बीमारी ने उन्हें काफी अशक्त बना दिया था, लेकिन उनका जज्बा बरकरार था और एक वैकल्पिक रास्ता निकले उनकी इस चाहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा था। जद(यू) के प्रधान महासचिव के.सी. त्यागी भी वहीं थे जो लंबे समय तक शरद यादव के सहयोगी रहे हैं। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और उनके चाचा शिवपाल यादव के साथ शरद यादव ने मुलायम सिंह यादव की सेहत को लेकर धीरे धीरे बातचीत भी की। मुझे देखकर वह मुस्कुराए और मेरे नमस्ते का जवाब भी दिया। किसी ने उनके कान में मेरा नाम बताया तो धीमी आवाज में उन्होंने कहा कि मैं पहचान रहा हूं।



 

कांग्रेस के दिग्गज नेता गोविंद दास को हराकर चर्चा में आए
शरद यादव का नाम राष्ट्रीय स्तर पर तब चर्चा में आया जब 1974 में जबलपुर में हुए लोकसभा के उपचुनाव में उन्होंने विपक्ष के साझा उम्मीदवार के रूप में कांग्रेस के दिग्गज नेता गोविंद दास को चुनाव हराया। इसके पहले वह जबलपुर विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष के रूप में देश के छात्र एवं युवा आंदोलन का एक बड़ा और अगुआ चेहरा बन चुके थे। मैंने भी उनका नाम तब सुना था और उनके जुझारुपन व बेबाक भाषण शैली से प्रभावित भी हुआ था। क्योंकि छात्र जीवन में मेरा वैचारिक झुकाव समाजवादी विचारधारा के प्रति था इसलिए शरद यादव हम सबके स्वाभाविक नेता थे। जब 1984 में वह अमेठी लोकसभा सीट से तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के खिलाफ चुनाव लड़े तब मेरे जैसे अनेक युवाओं को उनके राजनीतिक साहस पर रश्क हुआ।

बतौर प्रधानमंत्री सबसे ज्यादा इंदिरा गांधी को पसंद करते थे
भले ही शरद यादव इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल में जेल में रहे और बाद में उनके वारिस राजीव गांधी के खिलाफ चुनाव लड़े और 1989 में राजीव गांधी के खिलाफ बने विपक्षी गठबंधन के शिल्पकारों में वह प्रमुख थे, लेकिन यह भी एक हकीकत है कि बतौर प्रधानमंत्री वह सबसे ज्यादा इंदिरा गांधी को पसंद करते थे। यह बात एक बार उन्होंने मुझसे तब कही थी जब खुद अटल बिहारी वाजपेई की सरकार में मंत्री थे। मैंने उनसे पूछा था कि आपने इतने प्रधानमंत्रियों की सरकारें देखी हैं, आप किसे सबसे बेहतर मानते हैं। उन्होंने कहा कि इंदिरा गांधी। मैं आश्चर्य में पड़ गया। मैंने कहा कि आप तो कांग्रेस विरोध की राजनीति की उपज हैं और इंदिरा गांधी के आपातकाल में आप जेल में रहे। उन्होंने कहा कि वह हमारा राजनीतिक विरोध था। लेकिन इंदिरा गांधी जितनी संवेदनशील नेता थीं, वैसा दूसरा कोई नहीं है।

उन्होंने बताया कि जब वह 1974 में पहली बार लोकसभा में आए तब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। संसद सत्र के दौरान मैं रोज अखबारों में छपी दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों पर हमले और उत्पीड़न की खबरें शून्य काल में उठाता था। सदन स्थगित होते ही इंदिरा जी मुझे अपने चैंबर में बुला लेतीं और वह सारी जानकारी लेती थीं। अगले दिन संसद सत्र शुरु होने से पहले मेरे पास उन मामलों में क्या कार्रवाई की गई या की जा रही है इसकी पूरी जानकारी प्रधानमंत्री कार्यालय से आ जाती थी। शरद जी ने कहा कि ऐसी तत्परता और संवेदनशीलता मैंने किसी दूसरे प्रधानमंत्री में नहीं देखी।

कांग्रेस के खिलाफ विपक्षी गठबंधन का तानाबाना बुनने वाले नेताओं में अग्रणी
शरद जी से वैचारिक निकटता होते हुए भी उनसे मेरी विधिवत मुलाकात मेरे पत्रकार बनने के बाद शुरू हुई। वैचारिक निकटता के कारण मेरी उनसे अक्सर मुलाकातें होती थीं। जब वह दिल्ली के 31 फिरोजशाह रोड में रहते थे तब से लेकर उनके आखिरी सरकारी निवास सात तुगलक रोड पर मेरा अक्सर आना जाना रहता था। वह दौर जब देश की राजनीति करवट ले रही थी और 400 से भी ज्यादा लोकसभा सीटें जीतकर कांग्रेस अजेय लगने लगी थी तब शरद यादव कांग्रेस के खिलाफ विपक्षी गठबंधन का तानाबाना बुनने वाले नेताओं में अग्रणी थे। अपने सियासी सफर में उन्होंने मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडीस, राजनारायण, चौधरी देवीलाल, हेमवती नंदन बहुगुणा, विश्वनाथ प्रताप सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं के साथ काम किया। मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार, सत्यपाल मलिक, के.सी.त्यागी, रामविलास पासवान, मोहन प्रकाश, लालू प्रसाद यादव शिवानंद तिवारी जैसे कई नेता किसी न किसी मोड़ पर शरद यादव के साथ रहे।

राजनीति के कबीर थे शरद यादव
शरद यादव न सिर्फ कबीर को सबसे बड़ा सुधारक मानते थे, बल्कि उन्हें राजनीति का कबीर भी कहा जा सकता है। वह ऐसे विरले नेताओं में थे जो तीन राज्यों मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे। वह लंबे समय तक संसद के दोनों सदनों में रहे। केंद्रीय मंत्री रहे लेकिन उनके ऊपर किसी तरह का कोई आरोप विवाद या दाग नहीं लगा। जिस दल में वह रहे वहां उनका दबदबा रहा और पद से लेकर टिकट बंटवारे तक उनकी चली। लेकिन किसी ने भी कभी यह नहीं कहा कि उन्होंने बदले में कोई लाभ लिया हो। उनका यह कबीरपन जब वह मंत्री थे तब भी वैसा ही रहा और जब वह राजनीति के हाशिए पर चले गए तब भी बना रहा।

नागरिक उड्डयन मंत्री रहने के दौरान किस्सा
जब वह नागरिक उड्डयन मंत्री थे तब मैं और मेरे मित्र पत्रकार वीरेंद्र सेंगर के साथ शरद जी के कार्यालय में बैठे थे। कुछ लोग कोई प्रस्ताव लेकर आए और उन्होंने बातचीत में दो तीन बार कहा कि अगर उनका यह प्रस्ताव मान लिया जाए तो वह शिकागो अमेरिका में एक बड़ा कार्यक्रम करेंगे जिसमें बतौर मुख्य अतिथि नागरिक उड्डयन मंत्री शरद यादव को बुलाएंगे। एक दो बार शरद जी ने इसे अनसुना कर दिया लेकिन जैसे ही तीसरी बार यह बात कही गई शरद यादव उखड़ गए। तेज आवाज में बोले कि ये बार-बार शिकागो और अमेरिका की रट क्यों लगा रहे हो। गांधी और माओ कितनी बार शिकागो गए थे।

इसके साथ ही उन्होंने उन लोगों को बाहर कर दिया। उनकी पहली विदेश यात्रा तब हुई जब उन्हें विमान अपहरण कांड में रिहा कराए गए कुछ यात्रियों को लेने दुबई जाना पड़ा था। इसके बाद वह कभी नेपाल के सिवा कभी विदेश गए मुझे याद नहीं पड़ता। उन्हें न विदेश यात्रा से मोह था और न ही अन्य विदेशी प्रलोभनों से। वह अपनी बेबाकी के लिए जाने जाते थे। इसलिए उन्हें राजनीति में कबीर जैसा माना जा सकता है।

शाम को ही पत्रकारों को मिलने के लिए बुलाते थे
शरद यादव की एक आदत थी कि वह दोपहर को खाना खाने के बाद दो घंटे की नींद जरूर लेते थे। चाहे राजनीति और देश में कैसा भी माहौल हो शरद जी दोपहर की नींद नहीं छोड़ते थे। इसलिए अक्सर वह मिलने वालों को शाम को पांच बजे के बाद ही बुलाते थे। मैं भी अक्सर उनसे शाम को ही मिलता था। हालांकि, अखबारों के दफ्तरों में शाम को सबसे ज्यादा काम का दबाव होता है, इसलिए शरद जी से हम यह शिकायत भी करते थे कि वह शाम की जगह हमें दिन में क्यों नहीं बुलाते।

इसलिए कभी-कभी वह हमें दोपहर के भोजन पर भी बुला लेते थे। लेकिन वह अपने दैनिक कार्यक्रम में अमूमन फेरबदल नहीं करते थे। उनके साथ जब भी बातचीत होती थी लंबी ही चलती थी। उस बातचीत में राजनीतिक गतिविधियों से लेकर वैचारिक मुद्दों पर भी वह अपनी बेबाक राय रखते थे। हम पत्रकारों के लिए वह काफी जानकारी भी देते थे और यह हिदायत भी रहती थी कि गड़बड़ मत लिखना।

सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता में कोई नरमी कभी नहीं आई

मीडिया और राजनीति में सवर्ण वर्चस्व को लेकर वह कई बार काफी तल्ख हो जाते थे, लेकिन व्यावहारिक राजनीति में वह किसी एक जाति के पक्ष में कभी नहीं रहे। सामाजिक न्याय के प्रति उनकी प्रतिबद्धता में कोई नरमी कभी नहीं आई लेकिन उन्हें धुर जातिवादी नहीं कहा जा सकता। विश्वनाथ प्रताप सिंह पर मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के लिए दबाव बनाने वालों में शरद यादव भी प्रमुख नेता थे।

जनता दल में फूट होने पर वह देवीलाल के साथ नहीं गए जबकि जनता दल बनने से पहले वह देवीलाल के साथ लोकदल में थे। जब लोकसभा में एक वोट से अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिरी तब शरद यादव ने भी उनके खिलाफ वोट दिया था।

एनडीए में शामिल होकर वाजपेयी सरकार में मंत्री बने
लेकिन लोकसभा चुनाव में वह भी एनडीए में शामिल होकर वाजपेयी सरकार में मंत्री बन गए। उनके इस विरोधाभास पर जब मैंने उनसे सवाल पूछा तो उनका जवाब था कि जिस गठबंधन में वह जार्ज फर्नांडीस, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार जैसे सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्ष सोच वाले नेता और तेलुगु देशम, डीएमके, टीएमसी जैसे दल होंगे, तब भले भाजपा उस गठबंधन सरकार की अगुआई करे, लेकिन वह अपना सांप्रदायिक कट्टरवादी एजेंडा लागू नहीं कर सकेगी। उनका कहना था कि इसीलिए हमने एनडीए का नेशनल एजेंडा बनाया है और अगर भाजपा उससे पीछे हटी तो हम उसे चलने नहीं देंगे।

शरद यादव के साथ अनेक यादें हैं और उनका जाना मन को व्यथित करने वाला है। संसद में जब वह बोलते थे तो सरकार और विपक्ष किसी को भी नहीं छोड़ते थे। कभी-कभी तो मंत्री रहते हुए कुछ ऐसा बोल जाते थे जिससे सरकार के लिए उलझन पैदा हो जाती थी। लेकिन शरद यादव सच कहने में कभी नहीं चूके चाहे संसद हो या सड़क। संसद से सड़क तक आम आदमी वंचित तबकों, दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों की लड़ाई लड़ने वाले शरद यादव को विनम्र श्रद्धांजलि।

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